डॉ. नीरज गजेंद्र
लोग अक्सर पूछते हैं कि क्या भाग्य बदल सकता है। यह प्रश्न जितना सरल लगता है, उतना गहरा भी है। भाग्य कोई स्थिर, जड़ या अपरिवर्तनीय चीज नहीं है। यह तो एक प्रवाह है, एक धारा है। जैसे नदियां बहते हुए कभी सीधी, कभी टेढ़ी, कभी शांत और कभी उग्र हो जाती हैं, उसी प्रकार हमारे जीवन का भाग्य भी गतिशील, लचीला और हमारे कर्मों के अनुसार दिशाएं बदलने वाला होता है। वेद और उपनिषद बार-बार बताते हैं कि मनुष्य का भाग्य बाहर से थोपा हुआ नहीं है। भीतर से रचा हुआ होता है। ऋग्वेद का संदेश कर्म करने की प्रेरणा ही नहीं देता, यह संकेत भी है कि फल उन्हीं कर्मों से जन्म लेता है जिन पर मनुष्य का नियंत्रण होता है। उपनिषद कहते हैं कि यथा बीजं तथा फलम्। यानी आपकी सोच, आपका संकल्प और आपका कर्म ही भविष्य के बीज हैं। यदि बीज बदल सकता है, तो फल क्यों नहीं। इसलिए भाग्य का बदलना असंभव नहीं, स्वाभाविक है।
पुराणों में भी भाग्य पर नहीं, पुरुषार्थ पर जोर दिया गया है। महाभारत की विदुर नीति कहती है पुरुषार्थं प्रधानं। भीष्म, कर्ण और द्रौपदी ने कठिन परिस्थितियों को केवल भाग्य मानकर स्वीकार नहीं किया। उनके निर्णयों और दृढ़ता ने उनकी दिशा तय की। रामायण में अत्रि मुनि कहते हैं कि जीवन दो पंखों पर चलता है भाग्य और पुरुषार्थ। सिर्फ भाग्य के भरोसे उड़ान संभव नहीं, और जब पुरुषार्थ बदलता है तो उड़ान की दिशा भी बदल जाती है। इससे स्पष्ट है कि भाग्य कोई पूर्व-लिखित पटकथा नहीं है। यह मनुष्य के हर कदम के साथ स्वयं को नया आकार देता है। आधुनिक जीवन में भी यह सत्य साफ दिखाई देता है। दो व्यक्ति एक जैसी परिस्थितियों में होते हैं एक अवसर देखता है, दूसरा बाधा। एक आगे बढ़ता है, दूसरा ठहर जाता है। परिस्थितियां समान और सोच अलग। सोच कर्म बदलती है, कर्म परिणाम। यही परिणाम आगे चलकर भाग्य बन जाते हैं। असफलताओं के बाद दिशा बदलकर सफलता पाने वाले लोग यह प्रमाण हैं कि मनुष्य अपने कर्मों से भाग्य की नई रेखाएं लिख सकता है।
आध्यात्मिक दृष्टि से भी यही सत्य प्रतिध्वनित होता है। गीता में कृष्ण कहते हैं मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। मन ही मित्र है, मन ही शत्रु। जब मन भ्रम और भय से भर जाता है, तो लगता है कि भाग्य प्रतिकूल है। लेकिन जब मन संकल्प, धैर्य और सत्य के मार्ग पर चलता है, तो वही भाग्य अनुकूल दिखाई देता है। यह कोई चमत्कार नहीं, बल्कि मन और कर्म का स्वाभाविक परिणाम है। भाग्य को लेकर भ्रम इसलिए भी होता है कि मनुष्य तुरंत परिणाम चाहता है। एक प्रयास और तुरंत बदलाव, यह अपेक्षा अवास्तविक है। जैसे ऊर्जा को रूप बदलने में समय लगता है, वैसे ही कर्मों के प्रभाव को भी फल देने में समय लगता है। जो इसे नहीं समझता, वह भाग्य को कठोर मान लेता है। परंतु जब वह अनुभव करता है कि उसका हर विचार और हर कर्म उसका कल बना रहा है, तो भाग्य की भ्रांतियां स्वतः मिट जाती हैं।
सार यह है कि मनुष्य का भाग्य उसके हाथ में है। पूरी तरह नहीं, लेकिन पर्याप्त हद तक। यदि वह अपनी सोच, दिशा और कर्म बदल ले, तो भाग्य को नई राह पकड़ने से कोई नहीं रोक सकता। वेदों ने मार्ग दिखाया, उपनिषदों ने तर्क दिया, पुराणों ने उदाहरण दिए और आधुनिकता ने प्रमाण दे दिया कि मनुष्य अपने जीवन का शिल्पकार स्वयं है।
स्वयं की तलाश को जीवन का सबसे अहम काम क्यों बता रहे वरिष्ठ पत्रकार डॉ. नीरज गजेंद्र, पढ़िए यहां-
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