Saturday, March 25, 2023
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जैन साधुओं की तपस्या: 7 दिनों में बिना खाना खाए 166 किलोमीटर पैदल चला

जहां हम चार कदम की दूरी भी बिना किसी वाहन के तय नहीं कर पाते, वहीं जैन साधु मीलों का रास्ता बिना पैरों में किसी चप्पल के पैदल तय कर लेते हैं। तो वहीं ना तो इनका कोई घर होता है, ना ही कोई एक ठिकाना, इन्हें कहीं भी ज्यादा दिनों तक रूकने की भी अनुमति नहीं होती। सोशल मीडिया में एक वीडियों वायरल हुआ है इस वीडियो में बताया गया है कि जैन साधुओं ने बिना खाना खाए 166 किलोमीटर पैदल चला (#विहार) 7 दिनों में। इतनी बड़ी है जैन साधुओं की तपस्या ही कहा जा सकता है।

यहां देखें वीडियों

कई अड़चनों को पार कर मिलती है, जैन धर्म में दीक्षा

धन, दौलत, आराम और परिवार, यानि कि एक तरह से देखा जाए तो कुल मिलाकर जिंदगी के सभी सुख। यदि किसी की जिंदगी में ये सब कुछ है, तो भला इससे अच्छी जिंदगी और किसकी हो सकती है?  लेकिन शायद ये सारे सुख एक इंसान के लिए तब बिल्कुल बेकार हो जाते हैं, जब वो दीक्षा लेता है। दीक्षा, यानि दुनिया की सारी मोह-माया त्याग कर अपना पूरा जीवन दिगंबर बनकर भगवान की शरण में गुजार देना।

हालांकि, आपने अक्सर कहीं ना कहीं ये जरूर सुना होगा, कि किसी करोड़पति ने अपनी सारी संपत्ति को दान करके सन्यास ले लिया, या फिर किसी 14 या 15 साल के बच्चे ने अपनी पढ़ाई, दोस्त सब कुछ छोड़कर सन्यासी का जीवन ग्रहण कर लिया। और तो और आपने अक्सर ऐसे उदाहरण जैन समुदाय में ही सुने होंगे, लेकिन क्या कभी खाली बैठे आपने ये सोचा है कि, ऐसा क्या खास है जैन समुदाय की इस दीक्षा में, जिसके चलते दुनिया की कोई माया या फिर किसी भी सुख का बंधन दीक्षा लेने वाले किसी इंसान को बांध नहीं पाता।

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ये तो जाहिर है कि, जैन समुदाय भारत समेत पूरी दुनिया में अल्पसंख्यकों की सूची में गिना जाता है। लेकिन इसेक बावजूद भी दुनिया के सबसे ज्यादा अमीर लोग आपको जैन समुदायों के ही मिलेंगे, एक जानकारी के अनुसार, जैन धर्म बेल्जियम की सबसे अमीर कम्युनिटी माना जाता है। इतना ही नहीं, दुनिया का करीब 60 प्रतिशत हीरे का बिजनेस जैन धर्म के लोग ही चलाते हैं, जहां एक तरह कुछ आंकड़े ये बताते हैं कि, भारत में सबसे ज्यादा एजुकेटेड लोग जैन समुदाय में ही पाए जाते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ कई आंकड़ों के अनुसार, सबसे ज्यादा सन्यासी युवा और बच्चे भी इसी समुदाय के होते है।

वैसे तो जैन धर्म की दीक्षा को समझने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है इसकी मूल भावना को समझना, और इसको समझने के लिए सबसे पहले हम आपको बताते हैं कि, आखिर क्या है जैन धर्म का मतलब।

5 सिद्धांतों पर आधारित है जैन धर्म

दरअसल, जैन वो होते हैं, जो जिन के अनुयायी हों ,और जिन शब्द का अर्थ होता है जिन्होंने अपने मन, वाणी और अपनी काया को जीत लिया हो। उन्हें कहा जाता है जिन। और एक जिन अनुयायी की पहचान ही होती हैं, वस्त्र-हीन तन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और मन से साफ और निर्मल वाणी।

मित्रों, जैन धर्म 5 सिद्धांतों के आधार पर चल रहा है। जिनमें पहला आधार है अंहिसा! ये हिंसा के बिल्कुल खिलाफ हैं, इसके अनुसार, हम किसी भी इंसान को जाने-अनजाने किसी भी तरह का नुकसान नहीं पहुंचा सकते है। लड़ाई-झगड़ा, या फिर किसी के लिए नफरत की भावना रखना इसके आधारों में शामिल नहीं है।

तो वहीं इसका दूसरा सिद्धांत है सच.. और सच का सीधा सा मतलब है कि, सही और गलत में से हमेशा सही को चुनना। तो वहीं तीसरा सिद्धांत हैं अचौर्य, यानि की, अपने शरीर और मन को मैं ना मानना, हालांकि, इसका चौथा सिद्धांत बह्मचर्य की राह पर चलना सिखाता है। साथ ही, ये सिद्धांत ऊपर बताएं तीनों सिद्धांतों यानि की अहिंसा, सत्य और अचौर्य से मिलकर बना है। अब बारी आती हैं पांचवे और आखिरी सिद्धांत की, जिसका सीधा सा मतलब है किसी भी वस्तु, व्यक्ति या फिर विचार का संचय ना करना। आपको बता दें कि, इन पांचों सिद्धांतो को अपनाने के बाद ही महावीर को आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी।

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वैसे तो जैन धर्म भी बाकी धर्मों की तरह यही संदेश देता है कि, ना तो किसी के बारे में बुरा सोचे, और ना ही किसी का बुरा करें, मगर इस धर्म में सनातन धर्म की तरह चुपचाप दीक्षा नहीं ली जाती हैं बल्कि, जैन धर्म में सभी रिश्तेदारों और समाज को बुलाकर एक समारोह का आयोजन किया जाता है। जिसमें लड़के साधु और लड़कियां साध्वी बन जाती हैं।

ये समारोह बिल्कुल शादी के समारोह जैसा ही होता हैं, जहां पर दीक्षा लेने वाला लड़का हो या लड़की दोनों को हल्दी और मेहंदी लगाई जाती हैं, और फिर शादी की ही तरह पूरा मंडप सजाया जाता हैं, लड़कियों को दुल्हन की तरह तो लड़कों को नए और सबसे अच्छे कपड़े पहनाकर तैयार किया जाता है। फिर घर से लेकर समारोह स्थल तक बैंड-बाजों के साथ नाच-गाकर बारात निकाली जाती है, और बस यहीं आखिरी बार घरवालों बेटी या बेटा को आखिरी बार विदा कर देते हैं।

समारोह स्थल पर जैन अनुयायी और मुनि मौजूद होते हैं। जहां एक आसान पर दीक्षा लेने वाले इंसान को बैठाया जाता है, और बस वहां वो एक-एक करके अपने पूरे श्रृंगार को उतार देता है, जहां एक तरफ इस परंपरा के चलते पुरूष वस्त्र त्याग देते हैं, तो वहीं महिलाएं हाथ की बुनी हुई सफेद सूती साड़ी लपेट लेती है। जिसके बाद गुरूओं से दीक्षा ली जाती हैं और फिर अपने घर-परिवार को कभी मुड़कर नहीं देखा जाता।

हाथों से नोंचकर उखाड़ते हैं जैन मुनि अपने बाल

हालांकि, इसी दीक्षा का सबसे मुश्किल और जरूरी पड़ाव केश लोचन होता है। केश लोचन यानि की, बिना किसी कैंची या रेजर की मदद से खुद अपने सिर के बालों को नोंच कर उखाड़ देना। और ये पूरी प्रक्रिया सबसे ज्यादा दर्द देने वाली होती है। इतना ही नहीं कई बार तो सिर में जख्म तक हो जाते हैं लेकिन इसके बावजूद भी बाल उखाड़ने का क्रम जारी रहता है। और दीक्षा के बाद सभी मुनि और साध्वी साल में दो बार केश लोचन करते हैं। और तो और पुरूष अपनी दाढ़ी-मूंछों के बाल भी इसी तरह उखाड़कर निकाल देते हैं। केश लोचन के पहले साधु-साध्वी शरीर को राख से रगड़ते हैं, फिर गुच्छों में शरीर के बालों का लोचन करते हैं.

लेकिन रूकिए क्योंकि, यहां कहानी खत्म नहीं होती, बल्कि दीक्षा ग्रहण करने के बाद तो शुरूआत होती है असली चुनौतियों की। जैन धर्म में दीक्षा लेने के बाद कई तरह के ठोस नियमों को पालन करना पड़ता है, जैसे कि सूरज ढ़लने का बाद जैन साधु या साध्वी खाना तो दूर पानी की एक बूंद तक मुंह में नहीं ले सकते है। साथ ही, सूरज उगने के करीब 48 मिनट बाद ही पानी पीया जाता है।

Photo में छिपा है एक छिपकली, ढूंढ लिए तो मानिए आप हैं जीनियस

ये सभी अपने लिए खाने का इंतजाम भीक्षा मांगकर करते हैं, क्योंकि, ना तो इन्हें खाना बनाने की इजाजत होती है, और ना ही कोई इनके लिए आश्रम में खाना बनाता है, इतना ही नहीं, जैन मुनियों को एक घर से बहुस सारा खाना लेने की भी अनुमति नहीं होती है, और उनके इस तरह पूरी जिंदगी शुद्ध आहार और पानी पीकर जीवन काटने को गोचरी प्रथा कहा जाता है।

जैन साधुओं द्वारा भीक्षा लेने के भी कई नियम होते हैं, जिनका उन्हें पालन करना पड़ता है। अगर भोजन का दान करने से पहले किसी भी श्रद्धालू ने मुनि को नारियल, कलश, और लौंग के दर्शन नहीं कराएं, तो मुनि बिना भीक्षा लिए ही लौट जाते  हैं, और तो और, अगर भोजन में चींटी,बाल, या फिर कोई अपवित्र पदार्थ आ जाए तो उसी वक्त साधु खाना छोड़कर बिना पानी पिए ही चले जाते हैं,

हम अक्सर मजाक में, या फिर कभी जिंदगी से परेशान होकर कह देते हैं, कि ऐसी जिंदगी से बेहतर है कि सन्यास ले लेते हैं, भले ही ये शब्द हम बिना कुछ सोचे या जाने कह देते हो, मगर सन्यासी बनना जितना आसान केवल देखने भर से लगता है उतना ही ज्यादा हकीकत में मुश्किल होता है।

जहां हम चार कदम की दूरी भी बिना किसी वाहन के तय नहीं कर पाते, वहीं जैन साधु मीलों का रास्ता बिना पैरों में किसी चप्पल के पैदल तय कर लेते हैं। तो वहीं ना तो इनका कोई घर होता है, ना ही कोई एक ठिकाना, इन्हें कहीं भी ज्यादा दिनों तक रूकने की भी अनुमति नहीं होती है।

इन सब बातों से परे एक और चीज है जो थोड़ा हैरान करती है, और वो है ज्यादा संख्या में बच्चों का दीक्षा लेना। इस धर्म में ज्यादातर दीक्षा लेने के लिए बच्चे सामने आते हैं, और वो भी ऐसे बच्चे जिनमें ना तो सही गलत की समझ होती है, और ना ही सन्यास को ढंग से समझ पाने की।

जैन मुनियों और उनके उपदेशों से प्रभावित होकर अगर कोई 20 या 22 साल का युवा दीक्षा लेने की बात कहता है, तो शायद इस बात को पचा पाना इतना मुश्किल नहीं होगा, लेकिन वहीं जब 8 या 10 साल का बच्चा दीक्षा लेता है, तो ये हमारी समझ से तो बिल्कुल परे है।

हालांकि, कई बार जैन धर्म में बच्चों के दीक्षा ग्रहण करने पर विवाद हो चुका है, दरअसल, इस मामले को लेकर पहली बार विवाद तब हुआ जब, दीक्षा लेने के लिए हैदराबाद की 13 साल की अराधना 4 महीनों से व्रत कर रही थी। और व्रत खत्म होने के बाद अचानक दिल का दौरा पड़ने से उसकी मौत हो गई। हालांकि, इस घटना के बाद ना तो उसके परिवार ने और ना ही जैन समुदाय के लोगों ने इसका कोई विरोध किया, मगर इस घटना का बाल संरक्षण आयोग ने काफी विरोध किया जिसके बाद कई बार इन मामलों को अदालत तक भी पहुंचाया गया मगर अभी तक इसको रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं,

जाहिर है किसी भी धर्म में मोक्ष हासिल करने के लिए लोग संत, साधु या सन्यास की राह चुनते हैं, मगर जिस उम्र में बच्चों को अपनी पसंद, नापसंद तक ठीक से मालूम नहीं होती, शादी करने का अधिकार, या वोट देने का अधिकार नहीं होता, समाज की अच्छाई और बुराई की दूर-दूर तक कोई पहचान नहीं होती, उस उम्र में सन्यास लेने का फैसला करना, किसी बच्चे की इच्छा तो नहीं हो सकती है, क्योंकि, सन्यास लेना सही मायने में देखा जाए तो बच्चों की समझ से बिल्कुल परे है

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