
मनुष्य का जीवन बाहर की दुनिया से शुरू होकर भीतर की यात्रा पर समाप्त होता है। यही यात्रा आत्मदर्शन की है। इस मार्ग में मोह, प्रेम, वासना, त्याग और वैराग्य जैसे कई पड़ाव आते हैं। आज हम एक तीव्र गति वाली दुनिया में जी रहे हैं। हर चीज जल्दबाजी में उपलब्ध है। रिश्ते जल्दी से बनते हैं और उतनी ही जल्दी टूट भी जाते हैं। इस रफ्तार में हम अक्सर सतही सुखों में उलझ जाते हैं। आज का समय दिखावे और तात्कालिक संतोष पर टिका हुआ प्रतीत होता है। सोशल मीडिया पर हर कोई अपनी चमक दिखा रहा है। रिश्तों का पैमाना अब लाइक्स और कमेंट्स से तय होता है। प्रेम में तेजी तो है, पर गहराई कम। सबने भौतिकता और उपस्थिति को ही वास्तविक मान लिया है। ऐसे माहौल में असली प्रश्न यही है क्या हमारा मन भी उतनी ही शीघ्रता से संतोष पा लेता है या भीतर कहीं कोई खालीपन रह जाता है। यही विचार मुझे राजा भर्तृहरि और महारानी पिंगला की कथा की ओर ले जाता है। आइए, इस कथा के माध्यम से प्रेम और आत्मबोध के उस शाश्वत सत्य को समझें जो हर युग में प्रासंगिक रहा है।
भर्तृहरि उज्जयिनी के नरेश थे। वीर, विद्वान और सौंदर्य-प्रेमी थे। उनके राज्य में सुख-संपदा थी, पर उनके मन में एक रिक्तता भी थी। उन्हें अपनी महारानी पिंगला से गहरा प्रेम था। वह प्रेम इतना प्रगाढ़ था कि भर्तृहरि संसार की हर वस्तु में पिंगला का रूप देखने लगे। कथा के अनुसार, किसी संत ने उन्हें एक अमरफल दिया था, जिसे खाने वाला कभी वृद्ध न होता। राजा ने प्रेम की अमरता के विश्वास से वह फल अपनी प्रिय रानी पिंगला को दे दिया। लेकिन पिंगला ने वह फल अपने किसी और प्रिय को दे दिया और उसने किसी अन्य को। अंततः वही फल घूम-फिरकर भर्तृहरि तक पहुंच गया। इस प्रसंग ने राजा को भीतर तक हिला दिया। जब प्रेम आसक्ति बन जाता है, तब वह आत्मा को बाँध लेता है। मोह टूटने पर भर्तृहरि ने पाया कि सत्ता, वैभव और प्रेम, सब मृगतृष्णा की तरह क्षणभंगुर हैं। उन्होंने महलों का त्याग किया और वन चले गए। वहीं से उनकी आत्मदर्शन की यात्रा आरंभ हुई।
भर्तृहरि और पिंगला की कथा हमें बताती है कि जब प्रेम और वैभव बाहरी बनकर रह जाएं, तो असली पहचान खो जाती है। भर्तृहरि ने बाहरी वैभव देखा, पिंगला ने मोह और स्वार्थ के अनुभव से दुनिया को जाना, पर अंततः दोनों के जीवन की सबसे बड़ी सीख यही है कि अनुभवों के टूटने के बाद ही आत्म-जागरूकता का द्वार खुलता है। यह कथा यह भी सिखाती है कि सुख और दुख दोनों अस्थायी हैं। भर्तृहरि ने संसार की चकाचौंध देखी, फिर भीतर झाँका और पाया कि कर्म और विवेक का संतुलन ही वास्तविक शांति का मार्ग है। भर्तृहरि के जीवन की तरह महारानी पिंगला का प्रसंग भी शिक्षाप्रद है। उनके नाम पर रचित पिंगला गीता योगग्रंथ दर्शाता है कि मोह और भोग के बाद भी आत्मबोध संभव है। भोग की सीमा पार करने के बाद ही वैराग्य का द्वार खुलता है। इन व्यावहारिक सुझावों को अपनाकर भर्तृहरि-पिंगला की सीख को जीवन में उतार सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि दिन में कम से कम 10 मिनट का मौन रखें। विचारों को भीतर आने दें। रिश्तों में स्पष्टता रखें। उम्मीदों को साझा करें। असफलता से भागने के बजाए उसे समझें और सीख लेते हुए अपनी पहचान को बाहरी दिखावे से अलग करें।
आशय यह है कि बाहरी दुनिया हमें आकर्षित कर सकती है। पर पहचान वहीं मिलती है जहां हम अपनी आत्मा को समझते हैं। भर्तृहरि और पिंगला की कथा यही सिखाती है कि जब बाहरी वैभव टूटता है, तभी भीतर की ज्योति प्रकट होती है। और यही ज्योति हमें स्वयं और आत्मदर्शन तक पहुंचाती है।
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