डॉ नीरज गजेंद्र। पुरानी कहावत है कि जैसे हम सोचते हैं, वैसे ही बन जाते हैं। यह कथन साधारण नहीं जीवन का गूढ़ सत्य है। यह कहावत भारतीय दर्शन के साथ पश्चिमी विचारधाराओं में भी प्रकट होते रही है। आज के युग में जब बाहरी परिस्थितियां तेजी से बदल रही हैं, तब हमारी आंतरिक सोच ही वह स्तंभ है जिस पर हम अपने भविष्य की इमारत खड़ी करते हैं। सुख-दुख, सफलता-असफलता, शांति-अशांति सब कुछ हमारी सोच की दिशा पर निर्भर करता है। विचार हमारे आचरण को दिशा देने के साथ हमारे भाग्य और भविष्य को भी गढ़ते हैं। हमारी सोच ही हमें या तो ऊपर उठाती है या नीचे गिराती है।
गायत्री परिवार के संस्थापक पं. श्रीराम शर्मा आचार्य कहा करते थे कि मनुष्य जैसा सोचता है, वैसा ही बनता है। यह विचार दार्शनिक होने के साथ ही अत्यंत व्यावहारिक भी है। जब कोई व्यक्ति अपनी सोच में परिवर्तन करता है, तो उसके निर्णय, कार्य और व्यवहार में भी स्वतः परिवर्तन आने लगता है। यही परिवर्तन धीरे-धीरे जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति का मार्ग बनाता है। हमारे धार्मिक और आध्यात्मिक ग्रंथों में भी यही शिक्षा दी गई है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कहा है कि उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् अर्थात मनुष्य को स्वयं अपने ही प्रयासों से अपने जीवन का उद्धार करना चाहिए। यह संदेश आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना महाभारत काल में था। यह धार्मिक शिक्षा ही नहीं, एक जीवनमूल्य भी है, जो यह बताता है कि हमारी सोच ही हमारे आत्म-उद्धार या आत्म-विनाश की कुंजी है। जब हम अपनी चेतना को उच्चतर विचारों से जोड़ते हैं, तो वही सोच हमारे कर्म, दृष्टिकोण और चरित्र को ऊंचाई देती है।
आज के समय में, जब विज्ञान और मनोविज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि हमारा मस्तिष्क कैसे सोचने पर प्रतिक्रिया करता है, तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि हम अपनी सोच से ही अपना भाग्य बनाते हैं। दुनिया के महानतम विचारकों ने भी इसी सत्य को स्वीकारा है। विलियम शेक्सपियर ने अपनी कृति हेमलेट में लिखा है कि There is nothing either good or bad, but thinking makes it so. यानि कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं होता, सोच ही उसे यह सब बनाती है। इसका अर्थ है कि हमारे जीवन की घटनाएं वैसी नहीं होतीं जैसी वे होती हैं। वह वैसी बन जाती हैं जैसी हम उन्हें समझते हैं। सोच एक चश्मा है यदि वह मैला है, तो दुनिया धुंधली दिखेगी और स्वच्छ है, तो जीवन स्पष्ट और सुंदर प्रतीत होगा।
आचार्य पं. श्रीराम शर्मा का जीवन अपने आप में एक प्रेरणा है। उन्होंने न केवल स्वयं को तपस्या, साधना और विचारशीलता से गढ़ा, बल्कि लाखों युवाओं को भी युग निर्माण के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा है कि मानव जीवन की सबसे बड़ी शक्ति उसका विचार है, उसे जितना उच्च बनाओगे, जीवन उतना ही महान बनता चला जाएगा। उन्होंने एक निर्धन, सामर्थ्यहीन युवा के रूप में जीवन की शुरुआत की थी, परंतु उन्होंने आत्मबल, अध्यात्म और सतत साधना के माध्यम से न केवल स्वयं का जीवन बदला, बल्कि पूरे समाज को नई दिशा दी।
आज के तेज रफ्तार जीवन में हम अक्सर बाहरी चीजों को सफलता का मानक मानते हैं। पैसा, प्रतिष्ठा, पद, परंतु सच तो यह है कि इन सबका आधार हमारी सोच ही है। अगर सोच पराजय की हो तो सफलता भी मिलकर बेमानी लगती है। दूसरी ओर, अगर सोच सकारात्मक हो तो असफलता भी एक अवसर बन जाती है। जैसे हम शरीर की सफाई करते हैं, वैसे ही विचारों की सफाई भी जरूरी है। धर्म हमें यही सिखाता है कि सत्संग, ध्यान, जप और स्वाध्याय से हम अपने विचारों की गंदगी दूर कर सकते हैं। जब हम रोज सुबह कुछ समय मौन में बिताकर, सकारात्मक विचारों का अभ्यास करते हैं, तो हमारा दिन अधिक सुंदर और सार्थक हो जाता है।
एक बात और अगर आप उड़ना चाहते हैं, तो आपको उन सब चीजों को छोड़ना होगा जो आपको नीचे खींचती हैं। यह वाक्य केवल काव्यात्मक नहीं, बल्कि अत्यंत व्यावहारिक है। द्वेष, आलस्य, क्रोध, भय, असुरक्षा जैसी नकारात्मक भावनाएं हमारी उड़ान की सबसे बड़ी बाधाएं हैं। जब हम इन्हें पहचान कर धीरे-धीरे छोड़ना शुरू करते हैं, तो आत्मा स्वतंत्र होने लगती है, और चेतना ऊंचाई की ओर बढ़ने लगती है। सकारात्मकता, अध्यात्म और आधुनिक विचार इन तीनों का संतुलन ही मनुष्य को सम्पूर्ण बनाता है। हम भले ही किसी भी क्षेत्र में हों शिक्षा, व्यापार, राजनीति या कला, हमारी सोच ही हमारे व्यक्तित्व की असली पहचान होती है।