हक छिनने वाले भी यहां, रहनुमा कहलाते हैं।
जहां बाड़ ही खेत खा जाए, वो किसे बचाते हैं।
> लातों के भूत और उम्मीदों का सफर
मुसद्दीलाल हर सुबह नई उम्मीद लेकर दफ्तर पहुंचते हैं। एक उम्मीद कि शायद आज फाइल सरक जाएगी। बाबू का मूड ठीक होगा। साहब की कलम चलेगी। लेकिन साहब और बाबू दोनों को मानो फाइलों का कबड्डी खेलना भा गया है- उलझाओ, लटकाओ और भूल जाओ। मुसद्दीलाल की उम्मीदें हर बार चाय के खाली गिलास में डूब जाती हैं। जिले की बड़ी मीटिंग में साहब ने फरमान सुनाया, कहा- जनता के साथ संवेदनशील व्यवहार करो।
समस्याएं समय पर सुलझाओ। लेकिन भाई, छत्तीसगढ़ी कहावत तो आप जानते ही हैं लातों के भूत बातों से नहीं मानते। दफ्तरों के ये भूत किसी सख्त निर्देश से मानने वाले नहीं। ये वही लोग हैं जो आओ बैठो, चाय पी लो कहकर फाइलों को चाय की गरमी में तपाते हैं। मुसद्दीलाल जैसे लोगों को बड़े साहब के निर्देशों से थोड़ी उम्मीद जरूर होती है, पर काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। दफ्तर का खेल चलता रहेगा। फाइलें इधर-उधर घूमती रहेंगी। और मुसद्दीलाल… वो अगली सुबह फिर नई उम्मीद लेकर लौटेंगे। आखिर उम्मीद पर ही तो दुनिया कायम है, और दफ्तर…साहब की संवेदनशीलता पर!
> रेत, शराब और साहब के फरमान
बड़ी बैठक में साहब ने भृकुटियां तानीं। फरमान सुनाया। रेत और शराब के कारोबार में अवैध का कब्जा खत्म करो। एफआईआर दर्ज करो! पर साहब ये अवैध कारोबार राज के दरबान और भाटों की कृपा से फल-फूल रहा है। साहब के आदेश से उम्मीद जागी है। अब रेत तक पहुंचने वाली सड़कें सुधरेंगी। या फिर वही प्लास्टिक के गिलास और पानी पाउच का साम्राज्य रहेगा। सुनने में तो ये भी आया है कि राज दरबारी बड़ी गहराई से चर्चा कर तय करते हैं कि अवैध कारोबार किसके जिम्मे होगा।
अब यह नीर-क्षीर तो आपकी जांच ही करेगी। आखिर, जहां बाड़ ही खेत को खाने लगे, वहां फरमानों का असर कितना होगा। बैठक, कागज और निर्देश फिर वही ढाक के तीन पात बनकर न रह जाएं। जनता उम्मीद लगाए बैठी है कि साहब की सख्ती से रेत और शराब की रेतली लहरें शांत होंगी। लेकिन साहब, ऊंट के मुंह में जीरा डालने से ऊंट कब संतुष्ट होता है। अब देखना यह है कि आपकी सख्ती ऊंट को टहला पाती है।
> महतारी का वंदन और बंदरबांट
योजनाओं का हाल ये है कि बनने से पहले ही बंदरबांट शुरू हो जाती हैं। राजनीतिक दलों की ममता जागती है। ऐसी जुगत भिड़ाते हैं, जिससे महतारियों के वंदन के नाम पर अपने माथे पर चंदन लगा सकें। योजना लागू होते ही तिलक के साथ गुलाल गिरा और सफेद लिबास पर दागों की शुरुआत हो गई। अब देखिए, ग्राम पंचायत के एक सचिव साहब ने सद्भावना का अनूठा प्रदर्शन किया। अपनी पत्नी के खाते में ममतामयी राशि वारी दी। वो शिक्षक थीं। और योजना में पात्र हितग्राही बन गईं।
साहब ने सचिव को निलंबित तो कर दिया, पर क्या मामला यहीं खत्म हुआ। दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है। पर यहां तो छाछ के गिलास तक पर चोरों की नजर है। मितानिन, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, सरपंच और उनके परिजनों पर भी नजर डालिए साहब। कहीं ये भी महतारी का हक छीनने की होड़ में तो नहीं हैं। कहते हैं, जहां बाड़ खेत को खाने लगे, वहां फसल का क्या होगा। योजनाओं के नाम पर जो दाव-पेंच चल रहे हैं। उसमें महतारी केवल कागजी शोभा बनकर प रह जाए।
> बिजनेस या खेती का नया मॉडल
शहर और ग्राम सरकारों के गठन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। आरक्षण तय हो रहे हैं। साथ ही चौराहों पर चर्चाओं का बाजार भी गर्म है। सवाल है कि सरकार का आकार कैसा और किसका होगा। जवाब सुनिए, यहां सरकार नहीं बाजार सज रहा है। इसे वही लोग चला रहे हैं जिनके पास ज्यादा वजनदार तराजू है। खबर यह है कि सरकार बनाने दो बड़े घरानों के दफ्तरों में सौदेबाजी चल रही है। अब गांवों के खेतों पर चर्चा है। कौन सा खेत किसके हिस्से आएगा। खेतों के दाम तय हो रहे हैं। जो ज्यादा बोली लगाएगा।
वही इस सत्ता की खेती में हल चलाएगा। बात साफ है—यह सरकार नहीं, नया बिजनेस मॉडल है। सत्ता की खेती के लिए खेत-खलिहान भी नीलाम हो रहे हैं। यहां कौन सरकार बनाएगा का जबाव कौन ज्यादा लगाएगा में बदल चुका है। कहते हैं, जिसने ज्यादा लगाया, उसकी लूट ज्यादा होगी! अब देखना यह है कि जनता इस फसल को सिंचने देती है या सूखा घोषित कर देती है।
अंत में-
तिजारत बन गई है अब सियासत की हर रवायत।
जहां बोली लगती हो, वहां हक की क्या हिकायत।
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