डॉ नीरज गजेंद्र
आज के हालात पर नजर डालें तो तस्वीर चिंता में डाल देती है। खेत की मिट्टी थक चुकी है। रासायनिक खाद से उसकी ताकत कम हो रही है। किसान मेहनत करता है। मगर फसल का उचित दाम उसे नहीं मिलता। गांव-शहर की गलियों में गाय-भैंस कचरा और प्लास्टिक खाकर बीमार हो रही हैं। पराली का धुआं बड़े-बड़े शहरों को घेर लेता है। शादी-ब्याह के पंडालों में थालियां सजती हैं और अगले ही दिन उतना ही अन्न कूड़े में मिलता है। वहीं दूसरी ओर करोड़ों लोग भूखे पेट सो जाते हैं। वास्तव में इन दिनों हमारे आसपास की असली तस्वीर यही है। वैदिक ऋषि इस पर अपना चिंतन व्यक्त करते रहे हैं। हजारों साल पहले हमारे मार्गदर्शी धर्मग्रंथों ने अन्न के बंटवारे पर सुंदर सूत्र दिए हैं। ऋग्वेद के अनुसार ये सूत्र धार्मिक अनुष्ठान के साथ समाज और प्रकृति का संतुलन रहे हैं। हम चाहें तो आज की हर समस्या का हल इसमें ढूंढ सकते हैं।
ऋग्वेद में कहा गया है कि जो व्यक्ति स्वयं अन्न पाकर दूसरों को नहीं देता, वह पाप करता है। इसका आशय है कि अन्न पहला अधिकार उसे संचित करने वाले के साथ-साथ उन सभी का है जिन्होंने बीज से अनाज तक के सफर में सहयोग किया। ग्रंथ के अनुसार अनाज पर पहला अधिकार जमीन के चार अंगुल नीचे की भूमि का है। बीज रूपी अनाज जब मिट्टी में जाता है तो धरती माता उसे अपनी गोद में पालती है। इसीलिए कहा गया है माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः यानि धरती मां है और हम सब उसके पुत्र हैं। खेत की मिट्टी को अगर हम जहर देंगे तो आने वाली पीढ़ियां भूख से मरेंगी। समाधान सीधा है मिट्टी को पोषण दो। जैविक खाद, फसल चक्र और पानी का संतुलन ही उसकी असली देखभाल है।
अगला अधिकार पशुओं का है। अनाज अंकुरित होता है, तो उसके पौधे पर पहला हक पशुओं का माना गया है। क्योंकि गाय-बैल ही खेती की असली ताकत हैं। कहा गया है कि गोभिः प्रजाभिर्यजमानमश्वैः। गाय और पशु ही जीवन और यज्ञ के सहायक हैं। आज जब पशु प्लास्टिक खाकर मर रहे हैं तो यह हमारी भूल है। उन्हें चारा देंगे तो वे हमें दूध देंगे, खेत के लिए खाद देंगे और खेती को टिकाऊ बनाएंगे। उत्पादन के बाद फसल की पहली बाली को अग्नि और पक्षियों की मानी गई है। अग्नि के बिना जीवन का कोई यज्ञ पूरा नहीं होता और पक्षियों के बिना पर्यावरण का कोई संतुलन नहीं रहता। अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यम्। अग्नि सबका प्रथम ग्रहणकर्ता है। पक्षियों को मित्र माना गया है। आज पराली का धुआं वायुमंडल को घेरता है। चिड़ियों की चहचहाहट गायब हो रही है, तब हमें यही स्मरण करना होगा कि प्रकृति को उसका हिस्सा लौटाना है।
फिर आता है निर्धन और अतिथि का हिस्सा। न तस्याश्नन्ति केवला, इदं भुक्तं य इदं सख्युः। यानि अन्न का उपभोग अकेले करना पाप है। भूखे को अन्न देना ही सबसे बड़ा पुण्य है। आज जब एक तरफ करोड़ों लोग भूखे हैं और दूसरी तरफ अन्न बर्बाद हो रहा है, यह हमें झकझोरती है। इसका सीधा समाधान हर आयोजन में बचा हुआ अन्न जरूरतमंदों तक पहुंचाना है। अंततः शेष अन्न गृहस्थ का है। किसान का है। वही अन्नदाता है। मगर दुख की बात है कि किसान ही अपनी फसल का उचित दाम नहीं पा रहा। यही कारण है कि कर्ज से दबकर वह आत्महत्या करने पर मजबूर होता है। वैदिक परंपरा कहती है अन्नं न निन्द्यात् तद्व्रतम्। अन्न की निंदा मत करो। इसका मतलब है किसान का अपमान मत करो।
आज के सलाहकारों और नीति-निर्माताओं के लिए यह दृष्टि दिशा दिखाती है। अगर वे यह संदेश फैलाएं कि अनाज पर धरती, पशु-पक्षियों, निर्धनों और अतिथियों और किसान का हक पहला है, तो योजनाएं कागज से निकलकर दिलों तक पहुंचेंगी। भारतीय संस्कृति हमेशा यही कहती रही है अन्नं ब्रह्म। विज्ञान भी कहता है कि सस्टेनेबल फार्मिंग ही भविष्य है। ऋग्वेद दोनों को जोड़ देता है। अन्न केवल थाली का भोजन नहीं, जीवन का संतुलन भी है। आज जब दुनिया भूख, असमानता और जलवायु संकट से जूझ रही है, तो यह अन्न-वितरण सूत्र हमें प्रकाश की तरह राह दिखाता है। धरती, पशु, पक्षी, निर्धन, अतिथि और किसान सबका हिस्सा स्वीकार कर लेंगे तो आने वाली पीढ़ियां न केवल पेट भरेंगी बल्कि संतुलित और सुखमय जीवन भी पाएंगी। संदेश साफ है अन्न बांटिए, धरती संभालिए, जीवन संतुलित कीजिए। आज अगर कोई व्यक्ति सचमुच सलाहकार बनना चाहता है तो उसे आंकड़ों और आंकलनों से आगे बढ़कर मनुष्यता और प्रकृति की संवेदना का वाहक बनना होगा। अगर वह वेद के इस अन्न-वितरण के सूत्र को समझकर नीतियां बनाए और लोगों तक पहुंचाए तो समाज के दिलों में भी जगह बना सकता है।























