ज्ञान की जगह जानकारी और आत्मबोध की जगह अहंकार एकत्र करेंगे तो क्या होगा, पढ़िए यहां

ज़िंदगीनामा

डॉ नीरज गजेंद्र

© डॉ. नीरज गजेंद्र

आज का युग तेजी का है, भागदौड़ का है। लोग आगे बढ़ने के लिए किसी भी हद तक जा रहे हैं, चाहे वह नौकरी हो, व्यवसाय हो या निजी रिश्ते। व्यक्ति वह सब कुछ हासिल कर रहा है, जो वह पाना चाहता है। बावजूद इसके, मन में अशांति और असंतोष का भाव घर कर गया है। इसका कारण है कि हम ज्ञान की जगह जानकारी इकट्ठा कर रहे हैं और आत्मबोध की जगह अहंकार पाल रहे हैं।

ज्ञान वह दीप है जो अंधेरे मन को रोशन करता है। यह दीप तभी जलता है जब भीतर शांति हो, जब मन योग में स्थित हो और जब आत्मा नियंत्रण में हो। गीता का यह श्लोक न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते। तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति।आज भी उतना ही सत्य और प्रासंगिक है, जितना हजारों वर्ष पहले था। यह उपदेश केवल किसी पुरानी किताब का वाक्य नहीं है, बल्कि जीवन की असलियत है। आज जब दुनिया संघर्ष और असंतुलन से गुजर रही है, तब यह संदेश और भी आवश्यक हो गया है। इसमें कहा गया है कि इस धरती पर ज्ञान से अधिक पवित्र कुछ नहीं है। यह ज्ञान, योग में सिद्ध पुरुष को समय के साथ स्वयं मिल जाता है।

आइए, एक लघुकथा के माध्यम से यह समझने की कोशिश करें कि ज्ञान को केवल जानना नहीं, उसे जीना भी कैसे है और जीवन को केवल व्यतीत करने के बजाय किस तरह संवारना चाहिए। पुराने समय की बात है। एक गांव में एक नौजवान रहता था, जो पढ़ा-लिखा तो बहुत था लेकिन जीवन से असंतुष्ट था। उसने देश-विदेश की किताबें पढ़ीं, इंटरनेट खंगाला, गुरुओं से भी मिला, लेकिन उसका मन फिर भी बेचैन ही रहा। एक दिन वह एक ज्ञानी के पास गया और बोला, मुझे शांति चाहिए, मुझे ज्ञान चाहिए, मुझे जीवन का अर्थ चाहिए।

ज्ञानी मुस्कराए और उसे एक दर्पण दिया जो धूल से भरा हुआ था। उन्होंने कहा इसे साफ करो और देखो। नौजवान ने जैसे ही दर्पण की धूल हटाई, उसमें उसे खुद का चेहरा दिखा। साधु ने कहा, जिस तरह तूने दर्पण को साफ किया, वैसे ही अपने अंतर को साफ कर ले। तेरी बेचैनी का कारण तेरी बाहरी दुनिया नहीं, बल्कि तेरा भ्रमित मन है। जब मन शांत होगा, तो उत्तर अपने आप मिल जाएंगे।

आज लोग इंटरनेट से ज्ञान पाना चाहते हैं, लेकिन वह केवल बाहरी ज्ञान होता है। आत्मज्ञान भीतर से आता है। वह तब आता है जब हम थोड़ी देर अपने आप से बात करते हैं, थोड़ा मौन में बैठते हैं, थोड़ा उद्देश्य के साथ जीते हैं। आत्मज्ञान कोई किताबों से पढ़ा हुआ ज्ञान नहीं है, यह भीतर झांकने की प्रक्रिया है। अपने मन, इंद्रियों और विचारों को साधना है। जब हम खुद को पहचान लेते हैं, अपने कर्तव्य को समझ लेते हैं, तब जीवन अपने आप सरल, सार्थक और संतुलित हो जाता है।

जैसा कि गीता कहती है, ज्ञान कोई किताबों का बोझ नहीं है। यह वह प्रकाश है, जो हमें अपने भीतर की ओर देखने के लिए प्रेरित करता है। जब मन शांत होता है, इंद्रियां संयमित होती हैं और हम अपने कर्मों के उद्देश्य को समझते हैं, तब यह ज्ञान धीरे-धीरे भीतर प्रकट होता है। यह कोई एक दिन में मिलने वाली वस्तु नहीं है। यह तप है, अभ्यास है, और सबसे बड़ी बात यह स्वयं से मिलने की प्रक्रिया है।

आज की दुनिया में हम बहुत सारी जानकारियां इकट्ठा कर रहे हैं। हर दिन इंटरनेट से कुछ न कुछ नया सीखते हैं। लेकिन क्या यह जानकारियां हमें भीतर से सशक्त बना रही हैं। शायद नहीं, क्योंकि ज्ञान और जानकारी में फर्क है। जानकारी बाहर से मिलती है, ज्ञान भीतर से प्रकट होता है।

ब्रह्मकाल और ब्रह्मचर्य से मिलने वाले जीवन के उच्चतम शिखर पर पढ़िए पत्रकार डॉ नीरज गजेंद्र का दृष्टिकोण

 

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