साहित्य नहीं, एक सांस्कृतिक साक्ष्य है बहादुर कलारिन

डॉ. नीरज गजेंद्र

डॉ नीरज गजेंद्र

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक: बहादुर कलारिन
लेखक: भागवत जायसवाल
श्रेणी: लोकनाट्य / सांस्कृतिक आख्यान

भारतीय लोकपरंपरा में ऐसे अनेक स्त्री पात्र रहे हैं जिन्होंने अपने साहस, विवेक, त्याग और सामाजिक नेतृत्व से समाज को एक नई दिशा प्रदान की है। “बहादुर कलारिन” ऐसी ही एक लोकनायिका की प्रेरक गाथा है, जो छत्तीसगढ़ की संस्कृति में केवल एक ऐतिहासिक स्त्री पात्र नहीं, बल्कि आस्था, शक्ति और नारी गरिमा की जीवंत मूर्ति बन चुकी हैं। यह कृति उन्हें देवी स्वरूप मानने वाले जनमानस की श्रद्धा, स्मृति और संस्कृति का सुंदर साहित्यिक चित्रण है।

पुस्तक के लेखक भागवत जायसवाल स्वयं एक प्रशासनिक अधिकारी हैं, जिन्होंने छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों में न्यायिक दंडाधिकारी के रूप में कार्य करते हुए यहाँ की लोक-संस्कृति, सामाजिक संरचना और परंपरागत जीवन-शैली को निकट से देखा, समझा और आत्मसात किया है। उसी अनुभव और अंतर्दृष्टि की उर्वर भूमि पर इस उपन्यास का बीज पनपा है, जो अब एक सांस्कृतिक वृक्ष के रूप में हमारे सामने है।
यह उपन्यास छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश में प्रतिष्ठित कलार समाज की एक साहसी महिला के जीवन को केंद्र में रखता है, जो समाज के कठिन समय में मार्गदर्शक बनती है। ‘बहादुर कलारिन’ न केवल अपने समुदाय के लिए बल्कि समूचे अंचल के लिए आदर्श बनती है। उनकी निर्णय क्षमता, नीति, त्याग और दृढ़ता से वे वह गरिमा प्राप्त करती हैं जो सदियों बाद भी लोगों की श्रद्धा का केंद्र बनी हुई है।
लेखक ने बहादुर कलारिन को एक श्रद्धेय लोकनायिका के रूप में प्रस्तुत किया है, जिनकी स्मृति आज भी लोकदेवी के रूप में जीवित है। ग्रामीण समाज में आज भी उनकी पूजा की जाती है, जो यह सिद्ध करता है कि उन्होंने अपने आचरण और नेतृत्व से जनचेतना को इतना प्रभावित किया कि वे लोकमंगल की प्रतिमूर्ति बन गईं।
यह कहानी किसी काल विशेष तक सीमित नहीं है, बल्कि समयातीत प्रतीक बन चुकी है । नारी नेतृत्व, सामाजिक न्याय और लोकसम्मान की त्रयी को संजोए हुए।
लेखक की भाषा सहज, प्रवाहमयी और सांस्कृतिक रंगों से भरी हुई है। कहीं-कहीं छत्तीसगढ़ी लोकबोलियों का प्रयोग कथा में गहराई और प्रामाणिकता जोड़ता है। शैली में लोककथा, आख्यान और नाटकीय तत्वों का ऐसा सम्मिलन है जो पाठक को मात्र पढ़कर्मी नहीं रहने देता, बल्कि उसे उस समाज का जीवंत साक्षी बना देता है। उपन्यास में लोकगीत, पूजा-पद्धति, सामाजिक रीति-रिवाज, स्त्री विमर्श और समुदायों के आपसी संबंधों का गूढ़ चित्रण है। यह केवल एक कथा नहीं, छत्तीसगढ़ी लोकजीवन की सांस्कृतिक पुनर्रचना भी है।

‘बहादुर कलारिन’ की छवि केवल संघर्षरत स्त्री की नहीं है, वह संवेदना, विवेक, नेतृत्व और आस्था की समन्वित प्रतिमा है। लेखक ने उनकी बातों, निर्णयों और मौन में भी जो अर्थ भरे हैं, वे पाठक को भीतर तक आंदोलित करते हैं। यह चरित्र भारतीय नारी परंपरा के गौरवशाली संदर्भों में एक नया अध्याय जोड़ता है।

आज जबकि नारी नेतृत्व पर नए सिरे से विमर्श हो रहा है, यह कृति बताती है कि समाज में नायिका का उदय सत्ता से नहीं, सेवा और त्याग से होता है। ‘बहादुर कलारिन’ जैसे पात्र आधुनिक भारत की जड़ों से जुड़ी उस चेतना की प्रतीक हैं जो समय के साथ और भी प्रखर होती जाती है।
“बहादुर कलारिन” केवल साहित्य नहीं, एक सांस्कृतिक साक्ष्य है । यह छत्तीसगढ़ के जनमानस की स्मृति, श्रद्धा और संघर्ष की कथा है। लेखक भागवत जायसवाल ने अपने प्रशासनिक अनुभव और सांस्कृतिक दृष्टि का संयोजन करते हुए एक ऐसी कृति दी है जो समाज, संस्कृति और साहित्य तीनों को समृद्ध करती है।

“बहादुर कलारिन” एक अत्यंत महत्वपूर्ण कृति है । साहित्यिक, सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से। यह लोकगाथा के माध्यम से छत्तीसगढ़ की आत्मा से संवाद करती है। यह उपन्यास बताता है कि लोकनायक बनना किसी उच्च कुल या शक्ति की देन नहीं, बल्कि जनसमर्पण और नीति पर टिके जीवन की परिणति है।

यह कृति पढ़ना मात्र एक उपन्यास का पाठ नहीं, बल्कि अपनी माटी, अपने समाज और अपनी सांस्कृतिक जड़ों से पुनः जुड़ने जैसा अनुभव है। आने वाली पीढ़ियों को यह पुस्तक यह सिखाने में समर्थ है कि नारी शक्ति किस तरह समाज की दिशा बदल सकती है। बिना किसी विद्रोह या हिंसा के, केवल नैतिक साहस और सांस्कृतिक चेतना के बल पर।

निस्संदेह, “बहादुर कलारिन” उन दुर्लभ कृतियों में है जो पठनीयता के साथ-साथ स्मरणीय भी बन जाती हैं। यह पुस्तक हर उस पाठक की अलमारी में होनी चाहिए, जो लोकसंस्कृति, नारी गरिमा और सामाजिक चेतना को हृदय से समझना चाहता है।

पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार डॉ. नीरज गजेंद्र का लिखा चिंतन- मंच पर अपराधी और कोने में नैतिकता

 

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