पढ़िए, क्यों इतनी तेज हो रही हमारी सांसें और धीमी हो रही हमारी चेतना

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हम ऐसी दुनिया में जी रहे हैं जहां तेजी को तरक्की मान लिया गया है। सुबह मोबाइल के अलार्म से जागते ही किसी दौड़ में शामिल हो जाते हैं। समय, लक्ष्य, स्वीकृति और कभी-कभी दिखावे की भी दौड़ लगा रहे होते हैं। इस दौड़ में हो सकता है कि कोई बहुत कुछ पा रहे हों, पर एक-एक करके वे मूल्य खोते जा रहे हैं जो हमारे जीवन की बुनियाद हुआ करते थे।

घर से निकलते वक्त माता-पिता को प्रणाम करने की बात अब पुराने ज़माने की बात लगती है। दूसरों की भावनाओं को समझने का प्रयास करना ओवरसेंसिटिव माना जाने लगा है। चिंता को सफलता की कीमत के रूप में सामान्यीकृत कर दिया गया है। मन की चंचलता को अब मल्टीटास्किंग कहकर गौरवपूर्ण बनाने की कोशिश की जा रही है। लेकिन सच तो यह है कि अधिकांश लोग बाहरी शिष्टाचार और संयम की चादर ओढ़े हुए भीतर से बिखर रहे हैं। वृद्ध होते माता-पिता को आज केवल सुविधाएं दे रहे हैं, सम्मान नहीं। मन हमारी बात नहीं सुनने के बजाए हमें चलाने लगा है, और चिंता तो जिंदगी के हर कोने में या कहें नींद, रिश्तों और संवाद में घर कर गई है।

हम जिन बातों को आधुनिकता के नाम पर पीछे छोड़ आए हैं। वे सिर्फ परंपरा नहीं थीं, वह गहरी चेतना से जुड़ी जीवनशैली थीं। मनुस्मृति कहती है मातृ देवो भव, पितृ देवो भव। यह मानसिक संतुलन बनाए रखने की सामाजिक संरचना थी। विज्ञान भी यह सिद्ध कर चुका है कि माता-पिता से भावनात्मक जुड़ाव रखने वाले व्यक्ति अधिक संतुलित, सहनशील और निर्णयक्षम होते हैं।

मन की चंचलता आज मानसिक विकारों का द्वार बन चुकी है। योगसूत्र का  सिद्धांत कहता है मन की गति को नियंत्रित करना ही योग है। किंतु हमने इसे फ़ैशन और जिम की एक्सरसाइज़ तक सीमित कर दिया है। चिंता, जिसे हम सफलता की साथी मान बैठे हैं, वास्तव में शरीर और मस्तिष्क का धीमा ज़हर है। आधुनिक मेडिकल रिपोर्ट बताती हैं कि आज की 70 फीसदी बीमारियां मानसिक तनाव और चिंता से जुड़ी हुई हैं। उच्च रक्तचाप, डायबिटीज, अनिद्रा, डिप्रेशन… ये सब चिंता की तिनकों से बनी दीवार के असर हैं। ये बातें उपदेश नहीं, एक आवाज है, जिसे गंभीरता से सुननें तो कानों तक चेतावनी आती है। और समाधान का बीज हमें हमारे ही ग्रंथों से मिलता है, जीवन शास्त्र हैं।

महाभारत के अनुशासन पर्व में युधिष्ठिर एक अद्भुत सत्य प्रकट करते  हुए कहते हैं कि माता पृथ्वी से भारी है, पिता आकाश से भी ऊंचे हैं, मन वायु से भी तीव्र है और चिंता तिनकों से भी अधिक विस्तृत है। यक्ष के सवाल पर वे इन चारों प्रतीकों में हमारे जीवन की संपूर्ण चुनौती और समाधान को स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि माँ और पिता की उपस्थिति हमें जड़ों से जोड़ती है। मन की गति को समझना हमें आत्मनियंत्रण देता है और चिंता का विश्लेषण हमें मन की शांति की ओर ले जाता है।आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में वास्तव में अगर कुछ भारी, ऊँचा, तेज़ और गहरा है तो वह है हमारा संस्कारित मन, जो माँ-बाप के आशीर्वाद, आत्मनियंत्रण और चिंतनशीलता से बना होता है। घर से निकलते समय इन मूल्यों को अपने साथ ले जाएं, यही असली विकास होगा।

दुनिया बदलने के योग्य किस क्षमता को अपनाने की बात कह रहे वरिष्ठ पत्रकार डॉ नीरज गजेंद्र

 

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