कहना-सुनना आसान और भूलना सबसे कठिन

डॉ नीरज गजेंद्र

डॉ नीरज गजेंद्र । जीवन में शब्दों का अपना भार होता है कभी यह भार हल्का-फुल्का हंसी में बदल जाता है, तो कभी यह इतना भारी हो जाता है कि रिश्तों को डगमगा देता है। कहना, शायद सबसे सरल काम है। हम जो सोचते हैं, झट से बोल देते हैं। लेकिन जब वही बात हमें सुननी पड़ती है, तो दिल पर एक अलग ही असर डालती है। जीवन की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि बोलना आसान है, सुनना कठिन है, और भूलना तो सबसे कठिन है। हम अक्सर अपनी भावनाओं के दबाव में कुछ भी कह देते हैं शायद उस क्षण हमें लगता है कि हम सच बोल रहे हैं, या किसी को सुधार रहे हैं। लेकिन वही शब्द, जब हमें किसी और से सुनने पड़ते हैं, तो दिल पर जैसे किसी ने भारी पत्थर रख दिया हो। शब्दों की चोट दिखती नहीं, पर मन को भीतर तक चीर जाती है। फिर भी, जीवन की सबसे कठिन कला है, सब कुछ भूलकर सामान्य रहना। चाहे चोट शब्दों से लगी हो या व्यवहार से, उसे अनदेखा कर सामान्य व्यवहार बनाए रखना किसी तपस्या से कम नहीं। यह वही तपस्या है, जो केवल बड़े दिल वाले लोग कर पाते हैं।

हम अक्सर छोटी-छोटी कमियां ढूंढने में माहिर होते हैं। व्यक्ति की नजर कमी पर पहले जाती है, गुण पर बाद में। लेकिन यही दृष्टि अगर बदल जाए, और हम छोटी-छोटी अच्छाइयों को ढूंढने लगें, तो रिश्तों में एक अजीब सी मिठास घुलने लगती है। बड़े-बड़े रिश्ते भी केवल इसलिए टूट जाते हैं, क्योंकि हम गलतियों को बढ़ा-चढ़ाकर देखते हैं और अच्छाइयों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। वहीं, छोटे से छोटे रिश्ते भी वर्षों तक टिके रहते हैं, अगर हम उनमें छिपे छोटे-छोटे सद्गुणों को सराहते रहें।

सुनने के बाद अगली परीक्षा सहने की आती है। सहना मतलब चुपचाप उस पीड़ा को भीतर कैद कर लेना। यह पीड़ा कई बार रिश्तों में खामोशी की दीवार खड़ी कर देती है। लेकिन अगर सहने के साथ-साथ भूलना भी आ जाए, तो समझिए रिश्तों की उम्र लंबी हो सकती है। भूलना, दरअसल, सिर्फ स्मृति मिटा देना नहीं है। भूलना एक कला है। अपने दिल को इतना बड़ा बना लेना कि बीती चोटें वर्तमान की खुशियों को प्रभावित न करें। लेकिन यह कला हर किसी के बस की नहीं। इसे साधने के लिए धैर्य, उदारता और सबसे ज्यादा प्यार चाहिए। हमारी आदत है, हम छोटी-छोटी कमियों को तुरंत पहचान लेते हैं। किसी ने थोड़ा देर से जवाब दिया, किसी ने हमारी बात को महत्व नहीं दिया, किसी ने मदद करने में देर कर दी—हम इन बातों को पकड़कर बैठ जाते हैं। धीरे-धीरे यह छोटी-छोटी बातें हमारे मन में गांठ बन जाती हैं, और गांठें जितनी पुरानी हों, उतनी मुश्किल से खुलती हैं।

लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि अगर हम यही आदत उलट दें। अगर हम किसी में छोटी-छोटी अच्छाइयां खोजने लगें उसकी मुस्कान, उसका अपनापन, उसका साथ देने का अंदाज तो रिश्तों में मिठास घुलने लगेगी। एक छोटी सी तारीफ, एक छोटा सा धन्यवाद, या बस किसी का हाल-चाल पूछ लेना, ये सब उतने ही असरदार होते हैं जितना एक ठंडे पानी का गिलास तपती दोपहर में। बड़े-बड़े रिश्ते भी छोटी-छोटी कमियों को तूल देने से कमजोर पड़ जाते हैं, और छोटे-छोटे रिश्ते भी छोटी-छोटी अच्छाइयों को महत्व देने से मजबूत हो जाते हैं। यह हमारे चुनाव पर निर्भर है कि हम किस नजर से देखना चाहते हैं।

जीवन का गणित सरल है जहां बोलना जरूरी हो, वहां सोच-समझकर बोलो। जहां सुनना जरूरी हो, वहां पूरे दिल से सुनो। और जहां भूलना जरूरी हो, वहां अपने अहंकार से बड़ा दिल रखो। यकीन मानिए, यही तीन बातें न केवल रिश्तों को संवारेंगी, बल्कि जीवन को भी खूबसूरत बना देंगी।

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