रायपुर/महासमुंद। जहां एक ओर पूरे छत्तीसगढ़ में शाला प्रवेश उत्सव के माध्यम से बच्चों के नए शैक्षणिक सत्र की शुरुआत उल्लास और प्रेरणा के साथ की जा रही है, वहीं दूसरी ओर महासमुंद जिले से दो अलग-अलग लेकिन शिक्षा के भविष्य पर सवाल खड़े करने वाली घटनाएं सामने आई हैं।
खट्टी स्कूल में पहले दिन ही ताला, शाला प्रवेश उत्सव नहीं होने दिया गया
महासमुंद जिले के ग्राम खट्टी स्थित 211 साल पुरानी शासकीय प्राथमिक शाला में आज पहले ही दिन तालाबंदी कर दी गई। इसकी वजह बनी शिक्षा विभाग की युक्तियुक्तकरण नीति, जिसके तहत इस स्कूल को वर्ष 2005 में बने एक अन्य स्कूल में मर्ज किया जा रहा है।
कांग्रेस पार्टी ने इसका तीखा विरोध किया। पूर्व विधायक विनोद चंद्राकर के नेतृत्व में प्रदर्शनकारियों ने स्कूल के गेट पर ताला लगाकर शिक्षकों और बच्चों को बाहर निकाल दिया, जिससे शाला प्रवेश उत्सव ठप हो गया।

पूर्व विधायक ने आरोप लगाया कि—
आदेशों में स्पष्ट है कि जिन स्कूलों में छात्रों की संख्या अधिक है, उन्हें मर्ज नहीं किया जाना चाहिए।
ऐतिहासिक विद्यालयों को भी मर्ज करने से मना किया गया है।
और मर्ज से पहले शाला प्रबंधन समिति से औपचारिक चर्चा आवश्यक है।
उन्होंने बताया कि इस स्कूल में 206 छात्र दर्ज हैं और यह वर्ष 1814 में स्थापित हुआ था — यानी 211 वर्ष पुराना है। इसके बावजूद बिना किसी बैठक या नोटिस के इसे मर्ज करना शासन के आदेशों की अवहेलना है।

पिथौरा में शिक्षा के मंच पर राजनीति का दखल
इधर, महासमुंद जिले के ही पिथौरा स्थित PM SHRI SCHOOL में आयोजित शाला प्रवेश उत्सव कार्यक्रम भी विवादों में घिर गया है। यहां भाजपा के कुछ आमंत्रित जनप्रतिनिधियों का स्वागत होना था, लेकिन उसी पार्टी के एक जनप्रतिनिधि द्वारा रोकने का आरोप लगा है। विवाद इतना बढ़ा कि कार्यक्रम अंततः राजनीतिक खींचतान की भेंट चढ़ गया और केवल विभागीय स्तर पर ही आयोजन किया गया।
आरोप यह भी है कि—
आमंत्रण पत्र छपवाने में शासकीय कोष से खर्च हुआ, लेकिन उसे अंतिम क्षणों में रद्द कर अतिथियों को मना कर दिया गया।
इससे न केवल शासकीय कोष की बर्बादी हुई, बल्कि नगरपालिका अध्यक्ष जैसे जनप्रतिनिधियों की अवमानना भी मानी जा रही है।
शिक्षा का पहला दिन – ताले और तकरार के नाम!
जहां एक ओर शिक्षा को राजनीति से मुक्त रखने की बातें होती हैं, वहीं छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में पहले ही दिन शालाओं में प्रशासनिक लापरवाही, राजनीतिक हस्तक्षेप और अव्यवस्था का ऐसा चेहरा सामने आना चिंता का विषय है।
अब सवाल यह है—
क्या शिक्षा के मंदिरों को राजनीतिक मंच बनाया जा रहा है?
क्या स्कूलों की ऐतिहासिक गरिमा और स्थानीय भावनाओं का सम्मान नहीं किया जाएगा?
और क्या अधिकारी स्वतंत्र निर्णय ले सकेंगे, या सत्ता की परछाई में काम करेंगे?
शिक्षा के इस दोहरे संकट पर शासन की स्पष्ट भूमिका और पारदर्शी निर्णय जल्द आना चाहिए, वरना यह शुरुआत पूरे शैक्षणिक सत्र पर भारी पड़ सकती है।