ब्रह्मकाल और ब्रह्मचर्य से मिलने वाले जीवन के उच्चतम शिखर पर पढ़िए पत्रकार डॉ नीरज गजेंद्र का दृष्टिकोण

जिंदगीनामा

भारतीय संस्कृति में जीवन को चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास में बांटा गया है। चारों आश्रमों में ब्रह्मचर्य को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। यही वह अवस्था है जब व्यक्ति के जीवन की नींव रखी जाती है। शास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है कि यदि युवा ब्रह्म काल और ब्रह्मचर्य का पालन करें, तो वे जीवन के उच्चतम शिखरों को प्राप्त कर सकते हैं।

ब्रह्म काल, जिसे ब्रह्म मुहूर्त भी कहा जाता है। यह सूर्योदय से लगभग डेढ़ घंटा पहले का समय होता है। सामान्यतः यह समय प्रातः 3:30 से 5:30 बजे के बीच का होता है। आयुर्वेद, योग और मनोविज्ञान तीनों इस समय को मनुष्य के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। बताया जाता है कि इस समय वातावरण में विशेष प्रकार की प्राणशक्ति और सात्विकता होती है, जो ध्यान, अध्ययन, साधना के साथ आत्ममंथन के लिए आदर्श होती है। उदाहरण के लिए स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, महात्मा गांधी जैसे महापुरुष ब्रह्म मुहूर्त में उठकर साधना और स्वाध्याय करते थे। इससे उनकी मानसिक स्पष्टता, आत्मबल और विचारों में तीव्रता बनी रही। विज्ञान ने भी सिद्ध किया है कि सुबह जल्दी उठकर ध्यान करने से एकाग्रता, निर्णय-शक्ति और भावनात्मक संतुलन में वृद्धि होती है।

कर्मों की शुद्धता है ब्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्य का सामान्य अर्थ केवल यौन संयम तक सीमित समझा जाता है, लेकिन ऐसा नहीं है। शास्त्रीय दृष्टि से इसका व्यापक अर्थ है। विचार, भावना और कर्मों में शुद्धता बनाए रखना। मन, वचन और कर्म के जरिए विकारों से दूर रहना ही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। युवावस्था में यदि कोई अपनी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों जैसे अध्ययन, साधना, सेवा और आत्म विकास में लगाता है, तो वह जीवन के हर क्षेत्र में सफल हो सकता है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं संयमित इंद्रिय और बुद्धि वाला मनुष्य ही योग में स्थित हो सकता है। यह संयम ही ब्रह्मचर्य की आत्मा है। आज के युग में जहां सोशल मीडिया, भोग-विलास और तात्कालिक सुखों की भरमार है, वहां युवाओं का संयमित रहना कठिन अवश्य है, लेकिन असंभव नहीं।

संयम और साधना से विकास

ब्रह्म काल और ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले युवा शारीरिक और मानसिक रूप से सशक्त होने के साथ ही समाज के लिए एक प्रेरणा-स्तंभ भी बनते हैं। यह मार्ग तप का है, लेकिन परिणाम आनंदमय और दीर्घकालिक होते हैं। जैसे एक बीज अंधकार में रहकर वृक्ष बनता है, वैसे ही संयम और साधना से युवा आत्म विकास की ओर अग्रसर होते हैं। आज आवश्यकता है कि युवा आधुनिकता के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की इन अमूल्य परंपराओं से जुड़ें। विद्यालयों, परिवारों और सामाजिक संस्थाओं को भी चाहिए कि वे ब्रह्मकाल और ब्रह्मचर्य के महत्व को प्रचारित करें। तभी एक सशक्त, संस्कारी और आत्मनिर्भर राष्ट्र की कल्पना साकार हो सकेगी।

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