✍️ डा. विजय शर्मा, प्रधान पाठक, उच्च प्राथमिक शाला कसेकेरा
जन्म और पारिवारिक परिवेश
स्व. ताराचंद शर्मा जी का जन्म 13 जून 1936 को ब्रह्मणडीह (राजपुरोहित) ग्राम में हुआ। आप अभिमन्यु प्रसाद उपाध्याय के जेष्ठ पुत्र दामोदर प्रसाद जी के सुपुत्र थे। माता श्रीमती रामकुंवर देवी थीं। संयुक्त परिवार में बड़ी बहू के संस्कारों ने आपके जीवन को दिशा दी। चार भाई-बहनों, चचेरे संबंधियों और चाचा के स्नेह में अमराई की छांव तले आपका बाल्यकाल बीता।
शिक्षा एवं प्रारंभिक जीवन
आपकी प्रारंभिक शिक्षा कोमाखान स्थित राजाश्रय आंग्ल स्कूल में हुई। आठवीं तक पढ़ाई के बाद शिक्षक पात्रता परीक्षा पास कर 1954 में वहीं अध्यापक बने। 1956 में रायपुर से लोक सहायक सेना का प्रशिक्षण प्राप्त किया। गुरु एवं प्रधानपाठक स्व. शिवप्रसाद साहू जी के सानिध्य में श्रेष्ठ शिक्षक बनने की प्रेरणा मिली।
आपकी शिक्षा शैली में ड्रामा, गीत, श्लोक, कविता और अभिनय शामिल थे, जो बच्चों के मूल्यांकन और सीखने का प्रमुख माध्यम बने।
सुखरी डबरी: शिक्षण और सामाजिक नवाचार (1956-1960)
आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में शिक्षा को बढ़ावा देना चुनौतीपूर्ण कार्य था। गांव के चबूतरे पर कहानियों के माध्यम से शिक्षा देना, महुआ रस की परंपरा के बीच शालीन आचरण से प्रेरणा देना—यह सब आपकी कार्यशैली का हिस्सा रहा। यहां गोकुल साहू, चमन सिदार जैसे साथियों का सहयोग भी उल्लेखनीय रहा।
महासमुंद: बृजराज पाठशाला में नवाचार (1960-62)
आपने दस्तावेज़ संधारण, खेल-कूद, सांस्कृतिक गतिविधियों में विशेष योगदान दिया। यहां रघुनंदन शर्मा जी के नेतृत्व में गांव-शहर की शिक्षा के बीच के अंतर को समझने का अवसर मिला।
लभरा खुर्द: संस्कृति और शिक्षण का संगम (1962-65)
कुर्मी दाऊ समाज के सहयोग और स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि ने आपको संस्कृति, सभ्यता और अनुकरण की महत्ता सिखाई। यहीं से आपने बीटीआई प्रशिक्षण प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।

परसदा-बगनई: आदिवासी जंगलों में शिक्षा की अलख (1965-66)
बगनई नदी के तट पर शिक्षा का दीपक जलाना अत्यंत प्रेरक रहा। 1966 के बाल मेले में “अभिमन्यु व्यूह” पर आधारित सांस्कृतिक प्रस्तुति, स्थानीय व्यंजन, हस्तकला, वाद्य यंत्रों की थाप में थिरकते कदमों ने शिक्षा को उत्सव बना दिया। स्थानीय विधायक की बेटी का आयुर्वेद से उपचार आपका सामाजिक योगदान भी दिखाता है।
परसुली, पटपरपाली, कुलिया: नवाचार की निरंतर यात्रा (1966-1983)
रामायण मंडली का गठन, रात्रिकालीन कक्षाएं, बागवानी, गणेश पूजन से पोषण, छतरी वाली टीवी से श्रव्य-दृश्य शिक्षा—हर स्थान पर आपने कुछ नया किया। गरीबी, कुपोषण और सामाजिक कुरीतियों से लड़ने के लिए शिक्षा को माध्यम बनाया।
सिवनी कला और अंतिम अध्यापन (1983-1990)
अपने गृह ग्राम से दूर आप शिक्षक से प्रेरणास्रोत बन चुके थे। आपका जीवन शिक्षा, सेवा, अनुशासन और नवाचार का आदर्श बना। 5 मार्च 1990 को कक्षा अध्यापन के दौरान ही हृदयाघात से आपका निधन हुआ।
शिक्षक से युग निर्माता
आप न केवल शिक्षक थे, बल्कि बाल केंद्रित शिक्षा के उन्नायक, रामायण-महाभारत के टीकाकार, अद्भुत गणित शिक्षक, और समाज सुधारक भी थे। आपकी कृषि-बागवानी, आयुर्वेद-चिकित्सा, अनुशासन व शिक्षण शैली आज भी प्रेरणा देती है।
आपके सैकड़ों छात्र आज डॉक्टर, शिक्षक, अधिकारी, नेता, समाजसेवी के रूप में कार्यरत हैं—यह आपकी शिक्षा की सच्ची विरासत है।
🌸 श्रद्धांजलि
“एक शिक्षक जो स्वयं संस्था था।”
आपके नवाचार, सेवा और शिक्षण के योगदान को सत-सत नमन।
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📚 संदर्भ
स्व. ताराचंद शर्मा की डायरी
श्रीमती रामप्यारी शर्मा के संस्मरण
ग्रामवासियों के अनुभव (सुखरी डाबरी, महासमुंद, लभरा, परसदा, परसुली, पटपरपाली, कुलिया, सिवनी कला)