कोसल के क्रांतिवीर के लेखक पूर्व सांसद चुन्नीलाल साहू बता रहे नारायण सिंह से लाल सिंह मांझी तक संघर्ष की अनकही गाथा

शहीद वीरनारायण सिंह
chunnilal sahu
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10 दिसंबर 1857 का वह दिन जब छत्तीसगढ़ ने अपना अमर योद्धा, सोने-चांदी जमींदार वीर नारायण सिंह खो दिया। लेकिन अंग्रेजी दमन यहीं नहीं थमा। नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह को भी लंबे समय तक जेल में बंद रखा गया। 16 अगस्त 1859 को रिहा होने के बाद उनके मन में केवल एक संकल्प था, अपने पिता के विश्वासघात के दोषी देवरी के जमींदार महाराज साय को दंडित करना। इस उद्देश्य से वे बरगढ़ स्थित अपने मामा के गांव घेंस पहुँचे, जहाँ उनके नाना और घेंस जमींदार माधव सिंह पहले ही अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा संभाले हुए थे।

नारायण सिंह की फांसी के बाद माधव सिंह ने संघर्ष की मशाल अपने हाथों में ले ली। 72 वर्ष की उम्र में उन्होंने अंग्रेजों की नीतियों का कठोर प्रतिरोध किया, सिंघोड़ा घाटी को बंद किया और अपने चार बहादुर पुत्रों के साथ लगभग दस महीनों तक अंग्रेजी सेना से सीधी भिड़ंत की। कई बार अंग्रेजों को मात देने के बाद भी, कुछ स्थानीय जमींदारों के विश्वासघात के कारण वे पकड़े गए और 31 दिसंबर 1858 को संबलपुर में उन्हें फांसी दे दी गई। उनकी शहादत के तुरंत बाद अंग्रेजों ने घेंस जमींदारी पर कब्जा कर लिया और विद्रोह को कुचलने के लिए भारी सेना तैनात कर दी।
इसी दौरान नारायण सिंह के दूसरे साले और प्रसिद्ध क्रांतिकारी वीर सुरेंद्र साय के सेनापति कुंजल सिंह ने नर्सिंगनाथ और गंदमर्दन की पहाड़ियों में नई रणनीतियाँ बनानी शुरू कर दीं। सहयोग की कमी के बावजूद उन्होंने माड़ागुड़ा और सोनाबेड़ा के पहाड़ी क्षेत्र में स्थानीय जनजातियों के साथ मिलकर महाराज साय को दंडित करने का निश्चय किया। 10 मई 1860 को वीर सुरेंद्र साय के मार्गदर्शन में कुंजल सिंह, हट सिंह, बेरी सिंह और गोविंद सिंह ने देवरी पर हमला किया और कुंजल सिंह ने स्वयं महाराज साय का अंत कर दिया।
इस घटना से अंग्रेज बौखला उठे। कुंजल सिंह पर 500 रुपये और गोविंद सिंह पर 250 रुपये का इनाम घोषित कर दिया गया। इसके बाद विद्रोही दल ने पदमपुर की ओर न जाकर खरियार जमींदारी में शरण ली, जहाँ किसानों का अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ आंदोलन पहले से जारी था और राजा कृष्णचंद्र देव का उन्हें परोक्ष समर्थन भी प्राप्त था। इसी आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे तानवट गांव के गोटिया—लाल सिंह मांझी। आगे चलकर वे इस समूचे संघर्ष के सबसे प्रमुख और निर्णायक योद्धा सिद्ध हुए।
लाल सिंह मांझी ने किसानों की जमीन, अधिकार और परंपराओं की रक्षा को जीवन का ध्येय बनाया। वे समझते थे कि अंग्रेजों की ठेकेदारी व्यवस्था किसानों के लिए विनाशकारी सिद्ध होगी। उन्होंने विद्रोही दल को जंगलों में सुरक्षित आश्रय उपलब्ध करवाया, मार्गदर्शन दिया और खुद गुरिल्ला शैली में अंग्रेजों का सामना करने लगे।
मई 1860 तक अंग्रेजी सेना तोर्रा गांव तक पहुँच चुकी थी, लेकिन घने जंगल और वर्षा उनके कदम रोकते रहे। सितंबर–अक्टूबर 1860 में युद्ध पुनः तेज हुआ और लाल सिंह मांझी ने कैप्टन कॉकबर्न को रणभूमि में पराजित कर दिया। यह हार अंग्रेजों की प्रतिष्ठा के लिए बड़ा आघात थी। उन्होंने लाल सिंह को डाकू और विश्वासघाती कहकर घोषित किया और विद्रोही करार दिया। नवंबर 1860 में रायपुर से 390 सैनिक बुलाए गए और तीन दिशाओं से लाल सिंह मांझी पर धावा बोला गया, लेकिन उनकी छापामार युद्धकला और पहाड़–जंगलों का भूगोल अंग्रेजों के लिए अबूझ साबित हुआ।
मानिकगढ़, जुमलागढ़ और सोनाबेड़ा की पहाड़ियाँ लाल सिंह की ढाल बन गईं। ग्रामीण लोग भी पूरी निष्ठा से उनके साथ खड़े थे। कई बार गांवों के लोग गाय-बैल को मार्ग में छोड़कर अंग्रेज सेना को रोक देते, जिससे उनकी गति थम जाती। इन लगातार असफलताओं से अंग्रेजी अफसर बुरी तरह हताश होने लगे।
जब अंग्रेजों को लगा कि ग्रामीण विद्रोहियों का साथ कभी नहीं छोड़ेंगे, तो उन्होंने खरियार के राजा कृष्ण चंद्र देव पर दबाव बढ़ाया। उन्हें डेंजर किंग ऑफ इंडिया घोषित कर पदवी छीनने की धमकी दी गई। इसके बाद अंग्रेजों ने भयानक दमन शुरू किया। गांवों को जलाना, पशुओं को जब्त करना, ग्रामीणों को यातनाएँ देना।
यहीं लाल सिंह मांझी का सबसे बड़ा निर्णय सामने आया। वे जानते थे कि युद्ध जारी रखने से उनके अपने गांव-किसान बर्बाद हो जाएंगे। विकल्प मात्र दो थे या तो निरंतर संघर्ष कर गांवों को उजड़ते देखना, या स्वयं बलिदान देकर अपने लोगों को बचा लेना। उन्होंने दूसरे विकल्प को चुना।
उन्होंने पहले वीर सुरेंद्र साय, कुंजल सिंह, हटे सिंह और गोविंद सिंह को सुरक्षित स्थान सोनाबेड़ा, गतिबेड़ा की पहाड़ियों तक पहुँचाया। इसके बाद 22 नवंबर 1860 को वे खरियार के राजा कृष्णचंद्र देव के सामने स्वेच्छा से आत्मसमर्पण कर दिया। अगले दिन राजा ने लाल सिंह मांझी और उनके साथी चेतशाह को अंग्रेज कमांडर वॉलेंस के हवाले कर दिया। उन्हें संबलपुर ले जाया गया और 26–27 नवंबर के बीच काला पानी की सजा सुनाकर अंडमान भेज दिया गया। वहीं उनकी जीवन यात्रा का अंत हो गया। अपनी मिट्टी को अंतिम बार देखे बिना। वीर नारायण सिंह, उनके पुत्र गोविंद सिंह, जमींदार माधव सिंह, सेनापति कुंजल सिंह और किसानों के मसीहा लाल सिंह मांझी, इन सभी ने उस दौर में अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी, जब उसका सामना करना असंभव माना जाता था। उनका संघर्ष केवल स्वतंत्रता का संघर्ष नहीं था। वह स्वाभिमान, भूमि, परंपरा और मानवीय गरिमा की रक्षा का युद्ध था।
आज उनके बलिदान को याद करना केवल इतिहास दोहराना नहीं, बल्कि उस मिट्टी की सुगंध को महसूस करना है जिसे बचाने के लिए उन्होंने अपने प्राण अर्पित कर दिए। यह गाथा हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता केवल बड़े शहरों की लड़ाई से नहीं मिली; यह जंगलों, पहाड़ों, घाटियों और छोटे गांवों में जन्मे अनगिनत वीरों की भेंट है, जिनकी कहानियाँ आज भी हमारे गर्व को ऊँचा उठाती हैं।
(लेखक, महासमुंद के पूर्व सांसद और कोसल के क्रांतिवीरों के शोधकर्ता हैं)

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