मंज़िल की राह में किताबों के साथ चाहिए घर के संस्कारों की रोशनी

किताबें दिखाती हैं रास्ता

डॉ. नीरज गजेंद्र

नया शैक्षणिक सत्र शुरू हो चुका है। स्कूलों में रौनक लौट आई है। बच्चे नए बस्ते, किताबें और यूनिफॉर्म के साथ उत्साह से कक्षाओं की ओर बढ़ चले हैं। हर माता-पिता के मन में उम्मीद है कि उनका बच्चा पढ़-लिखकर कुछ बड़ा बनेगा, कामयाब होगा। लेकिन क्या सिर्फ स्कूल की पढ़ाई से ही बच्चे का जीवन संवर जाएगा। क्या किताबों में लिखा ज्ञान ही उसे सही निर्णय लेना सिखा देगा। शायद नहीं। किताबें दिशा दिखा सकती हैं, लेकिन यह तय करना कि कौन-सी राह सही है, यह निर्णय बच्चा अपने संस्कारों से लेता है। जो उसे घर से मिलते हैं।

संस्कार वही नींव है, जो अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ही नहीं, धर्म के लिए युद्ध करने वाला भी बनाता है। महाभारत में जब अर्जुन अपने परिजनों को सामने देख युद्ध से पीछे हट जाता है, तब श्रीकृष्ण उसे गीता का पाठ पढ़ाने के साथ भीतर के मूल संस्कारों को जगाते हैं। यह वही मूल संस्कार थे, जो हर व्यक्ति के भीतर मां-बाप और गुरु से प्राप्त होता है, कर्तव्य और धर्म के प्रति निष्ठा का भाव। आज के बच्चे भी अर्जुन की तरह हैं, ज्ञान में कुशल, लेकिन निर्णय की घड़ी में अक्सर असमंजस में पड़ जाने वाले। ऐसे में अगर उनके भीतर दृढ़ नैतिकता, संवेदनशीलता और विवेक नहीं होगा, तो वे भी जीवन के हर युद्ध में असमंजस का शिकार होंगे।

हमारे पुराणों में तो यह भी कहा गया है माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः। न शोभते सभा मध्ये हंसमध्ये बको यथा॥ अर्थात वह माता-पिता शत्रु के समान हैं जिन्होंने अपने बच्चे को सही शिक्षा और संस्कार नहीं दिए। ऐसा बच्चा सभा में वैसे ही भद्दा लगता है जैसे हंसों के बीच बैठा एक बगुला। स्कूल बच्चों को पाठ पढ़ाता है, लेकिन असली शिक्षा उन्हें घर से मिलती है। मां-बाप का व्यवहार, उनकी भाषा, संयम और रिश्तों के प्रति समझ, यही सब बच्चे अपने भीतर आत्मसात करते हैं। आज हम देख रहे हैं कि बच्चे टेक्नोलॉजी में तेज हैं, लेकिन धैर्य, सहनशीलता और भावनात्मक समझ में पीछे हैं। इसका बड़ा कारण है घर में संवाद और जीवन मूल्यों की शिक्षा का कमजोर होना।

बच्चे वह सब भूल सकते हैं जो वे पढ़ते हैं, लेकिन वे कभी नहीं भूलते जो वे घर में रोज देखते और अनुभव करते हैं। यही अनुभव धीरे-धीरे उनके स्वभाव का हिस्सा बन जाते हैं। अक्सर माता-पिता सोचते हैं कि उन्होंने बच्चे को अच्छे स्कूल में भेज दिया है, अब वही उसे सब कुछ सिखा देगा। लेकिन यह वैसा ही है जैसे किसान बीज बोकर उसे छोड़ दे और बिना देखभाल के फसल की उम्मीद करे। जब हम बच्चों को स्कूल भेजें, तो यह भी याद रखें कि असली पाठशाला घर है, और सबसे प्रभावशाली शिक्षक मां-बाप होते हैं। क्योंकि जिंदगी में कब और कहां कौन-सा पाठ काम आ जाए, यह किताबें नहीं, बल्कि संस्कार ही तय करते हैं। बच्चा क्या बनेगा, यह स्कूल तय करता है। लेकिन वह कैसा इंसान बनेगा, यह घर तय करता है। इसलिए घर को भी पाठशाला बनाइए और खुद को उस पाठशाला का आदर्श शिक्षक।

(लेखक सामाजिक-राजनीतिक रणनीतियों के विश्लेषक एवं अध्यात्म-संस्कृति के शोधार्थी हैं)

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