वरिष्ठ पत्रकार डॉ. नीरज गजेन्द्र से समझिए कि कैसे पूरी होगी आदर्श समाज की खोज

मानव सभ्यता का सबसे पुराना और सबसे मधुर स्वप्न है एक ऐसा समाज जहां किसी के नेत्रों में भय न हो, किसी के हृदय में शोक न हो, किसी के शरीर में रोग न हो। तुलसीदास ने इस स्वप्न को राम राज्य का नाम दिया। यह किसी महाकाव्य की कल्पना नहीं, मनुष्य के भीतर छिपी उस अनन्त आकांक्षा का चित्रण है, जो हर युग, हर संस्कृति और हर धर्म में किसी न किसी रूप में उजागर होती रही है। उन्होंने इसे उस युग के रूप में चित्रित किया जहां हर व्यक्ति अपने धर्म का पालन करता है। वेदों की नीति पर चलता है। हरेक जीवन सत्य, करुणा, दान व पवित्रता की रीति बन जाते हैं। यह आदर्श व्यवस्था अकेले गोस्वामी जी की कल्पना भर नहीं  है, समस्त धर्मग्रंथों और दार्शनिक परंपराओं में प्रतिध्वनित होती है।

गीता हमें सिखाती है कि धर्म वही है जो सब प्राणियों के कल्याण में रत हो। बौद्ध दर्शन करुणा और मैत्री को जीवन का मूल आधार मानता है। जबकि जैन धर्म का सूत्र परस्परोपग्रहो जीवाना यह बताता है कि जीवों का परस्पर सहयोग ही जीवन का सार है। कुरान न्याय और समानता को ईश्वर की इच्छा का केंद्र बताता है और बाइबिल क्षमा, प्रेम और सत्य के मार्ग को परम आस्था मानती है। इन सबका संदेश यही है कि जब तक समाज करुणा, न्याय और सहिष्णुता पर खड़ा नहीं होगा, तब तक कोई शासन आदर्श नहीं कहलाएगा।

आधुनिक दार्शनिकों और विचारकों ने भी इसी आदर्श को अपनी भाषा में व्यक्त किया है। महात्मा गांधी ने राम राज्य को जनता के कल्याण और सत्य-अहिंसा पर आधारित शासन की संज्ञा दी। विवेकानंद ने धर्म का सार मनुष्य सेवा में देखा। टॉलस्टॉय और मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने प्रेम और अहिंसा को सामाजिक परिवर्तन का साधन बताया। अरस्तु ने राजनीति का उद्देश्य मानव जीवन की भलाई को माना। यह सब हमें यह समझाते हैं कि चाहे युग कोई भी हो, शासन का सर्वोच्च लक्ष्य मानवता का कल्याण ही है।

आज के दौर में जब हम लोकतंत्र, विज्ञान और तकनीक के युग में जी रहे हैं, तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या राम राज्य जैसी स्थिति संभव है। विज्ञान और तकनीक ने मनुष्य को अनगिनत साधन दिए हैं, पर दिशा अभी भी वही पुरानी तलाशती है। यदि आधुनिकता धर्म और अध्यात्म से कट जाए तो वह केवल उपभोग और प्रतिस्पर्धा का अंधा चक्र बन जाती है। पर जब वही आधुनिकता नैतिकता और अध्यात्म का सहारा ले लेती है तो साधन और साध्य का संगम होकर वह कल्याणकारी समाज का रूप ले लेती है। राम राज्य का अर्थ यही तो है जहां राजा और प्रजा के बीच विश्वास हो, जहां शासन जनसेवा का पर्याय बने, और जहां हर व्यक्ति अपने भीतर की नैतिक चेतना से संचालित होकर अवचेतन रूप से भी पाप करने से बच जाए।

राम राज्य केवल एक युग का स्वप्न नहीं, यह शाश्वत आकांक्षा है। यह आकांक्षा गंगा की धारा की तरह हर युग में बहती है। हर सभ्यता को सींचती है। यह हमें बताती है कि भले ही साधन बदल जाए, युग बदल जाए, पर मानव के भीतर की करुणा, सत्य और न्याय की भूख कभी नहीं बदलती। यही भूख ही उसे बार-बार राम राज्य की ओर ले जाती है। राम राज्य का सार यही है कि शासन कल्याणकारी हो, समाज न्यायपूर्ण हो और व्यक्ति नैतिक हो।

राजा और प्रजा के बीच का प्रेम और त्याग आज जनप्रतिनिधि और मतदाता के रिश्ते में तब्दील होता है। यदि नेता सच्चे अर्थों में जनसेवक बने और जनता अपने कर्तव्यों के प्रति सजग रहे, तो लोकतंत्र भी राम राज्य का स्वरूप धारण कर सकता है।धर्मग्रंथों की शिक्षाएं और आधुनिक दर्शन की दृष्टि मिलकर हमें यही बताते हैं कि आदर्श समाज शासन की नीतियों से नहीं, मानव के अंतर्मन की शुद्धता और उसकी करुणामयी प्रवृत्ति से बनता है। जब धर्म हमें दिशा देता है और आधुनिकता हमें साधन, तो दोनों के संगम से एक ऐसा समाज संभव होता है जिसमें भय, अभाव और अन्याय का स्थान प्रेम, न्याय और समृद्धि ले ले।

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