
मनुष्य का सबसे बड़ा संघर्ष बाहर की दुनिया से नहीं, भीतर की दुनिया से होता है। यही कारण है कि दार्शनिकों और संतों ने बार-बार कहा है कि सच्चा जीवन वहीं से शुरू होता है जहां से आत्म-खोज का मार्ग खुलता है। ओशो ने कहा है कि खुद को खोजना ही जीवन का सबसे अहम काम है। इस खोज के लिए न तो किसी प्रतिस्पर्धा की आवश्यकता है और न ही किसी बाहरी प्रमाण की। मनुष्य जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए। यही स्वीकारोक्ति आत्मविश्वास का पहला कदम होता है।
धर्म और अध्यात्म की परंपरा में आत्म-खोज का विचार नया नहीं है। उपनिषदों से लेकर गीता तक हर जगह आत्मा की पहचान को जीवन की पराकाष्ठा बताया गया है। कठोपनिषद् में नचिकेता का प्रसंग इसका सशक्त उदाहरण है। जब यमराज ने नचिकेता को अनेक भौतिक वरदान दिए, तो उसने उन्हें ठुकराकर आत्मा के रहस्य का ज्ञान मांगा। यह घटना बताती है कि सच्ची जिज्ञासा बाहर की वस्तुओं से नहीं, भीतर की पहचान से जुड़ी होती है। भगवद्गीता में भी भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् अर्थात मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं अपने द्वारा अपने को उठाए, क्योंकि आत्मा ही उसका मित्र भी है और शत्रु भी। यहां आत्मविश्वास और आत्मस्वीकृति का संदेश स्पष्ट है। यदि हम स्वयं पर भरोसा करेंगे, तो पूरी सृष्टि हमारे साथ सहगामी प्रतीत होगी, किंतु यदि स्वयं को ही नकार देंगे तो हर परिस्थिति हमें संकट ही प्रतीत होगी।
पौराणिक आख्यान भी आत्म-खोज और आत्मविश्वास की मिसालें देते हैं। वाल्मीकि का जीवन इसका बड़ा उदाहरण है। डाकू रत्नाकर जब अपने ही परिवार से यह सुनता है कि उसके पाप का भार कोई नहीं उठाएगा, तब भीतर से हिला हुआ वह ऋषि नारद की शरण में जाता है और अंततः ध्यान और साधना के मार्ग पर चलकर वाल्मीकि बन जाता है। उसकी कहानी हमें यह सिखाती है कि मनुष्य अपने भीतर झांक ले तो परिवर्तन असंभव नहीं होता।
महाभारत में भी अभिमन्यु का प्रसंग इसी आत्मविश्वास की ओर इशारा करता है। चक्रव्यूह तोड़ने का आधा ज्ञान होते हुए भी उसने युद्धभूमि में प्रवेश किया। उसकी वीरता हमें बताती है कि जीवन की सबसे बड़ी ताकत स्वयं पर भरोसा करना है। परिणाम चाहे जैसा हो, लेकिन आत्मविश्वास ही व्यक्ति को संघर्ष करने का साहस देता है।
इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि जिन्होंने स्वयं को खोजा, वही युगों तक प्रेरणा बने। बुद्ध ने राजमहल छोड़कर ज्ञान की तलाश की। उन्होंने स्वयं को समझा और फिर संपूर्ण मानवता को मध्यम मार्ग का संदेश दिया। कबीर ने कहा माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका छोड़ दे, मन का मनका फेर। ये पंक्तियां बताती हैं कि आत्म-खोज बाहरी आडंबरों में नहीं, बल्कि भीतर की सजगता में है। ओशो का यह कथन कि जो इंसान खुद पर भरोसा करता है, वह जिंदगी भर आराम करता है, वास्तव में गहरे अनुभव से उपजा है। यह आराम आलस्य नहीं, बल्कि जीवन के साथ सामंजस्य का दूसरा नाम है। जब हम अपने भीतर को स्वीकार कर लेते हैं, तो हमें किसी से तुलना करने की आवश्यकता नहीं रहती। प्रतिस्पर्धा का दबाव हटते ही जीवन सहज और प्रसन्न हो जाता है।
आज के दौर में मनुष्य सबसे ज्यादा इसी कारण परेशान है कि वह दूसरों से तुलना करता है। किसी के पास अधिक संपत्ति है, किसी के पास बड़ा नाम है, किसी के पास अलग हुनर है। इन सबकी दौड़ में मनुष्य स्वयं को खो बैठता है। लेकिन अगर हम यह समझ लें कि हर व्यक्ति अद्वितीय है, तो यह चिंता स्वतः समाप्त हो जाएगी। जैसे वृक्ष अपने फल-फूल से पहचाने जाते हैं, वैसे ही हर मनुष्य अपनी मौलिकता से पहचाना जाता है।
आत्म-खोज की साधना आसान नहीं है। इसके लिए ध्यान, आत्ममंथन और सतत अभ्यास की आवश्यकता होती है। जब हम मौन में बैठते हैं, अपने भीतर उठती हलचलों को सुनते हैं, तभी हम स्वयं से साक्षात्कार कर पाते हैं। यह साधना धर्म का मूल है और अध्यात्म की धुरी भी। यही कारण है कि ऋषियों ने ध्यान को सर्वोच्च साधना माना। जीवन का सबसे बड़ा कार्य स्वयं को खोजना है। यह खोज हमें बाहर नहीं, भीतर के मौन में मिलती है। जब हम स्वयं पर भरोसा करते हैं, तो हमें जीवन के हर कदम पर सहजता और स्थिरता मिलती है। यही जीवन का असली आराम है, और यही आत्म-खोज की परम साधना भी है।
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